1940 में एक पंजाबी फिल्म से उन्होंने फिल्मी सफर शुरू किया. 1945 में खलनायक के रूप में उनकी पहली फिल्म आई. एक जमाना था जब प्राण का फिल्म में होना ही सफलता का गारंटी माना जाता था.12 फरवरी 1920 को जन्मे प्राण के पिता कृष्ण सिकंद सरकारी ठेकेदार थे. पढ़ाई पूरी करने के बाद प्राण अपने पिता के काम में हाथ बंटाने लगे. एक दिन प्राण की मुलाकात लाहौर के मशहूर के पटकथा लेखक वली मोहम्मद से हुई. इसी दौरान वली ने प्राण को फिल्मों में काम करने का प्रस्ताव दिया. उस वक्त प्राण ने इस प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दिया लेकिन बार-बार कहने पर मान गये.एक दौर वह भी था जब लोग अपने बच्चों का नाम प्राण नहीं रखना चाहते थे. वजह यह थी कि पर्दे पर जब बल्ब जैसी रौबीली आंखें दिखती थीं तो लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे. लड़कियां डर के मारे चीख पड़ती थीं. तीन घंटे की फिल्म में हीरो से टक्कर लेता यह शख्स अपनी असल जिन्दगी में किसी नायक की छवि से बहुत ऊपर है. लोग जितना इनका सम्मान करते थे, उतना ही इनकी दरियादिली के कायल भी थे.शुरुआत की कुछ फिल्मों में उन्होंने नायक की भूमिका निभाई लेकिन उन्हें पहचान मिली खलनायक की भूमिका से. उन्होंने प्रमुख रूप से जिद्दी, बड़ी बहन, उपकार, जंजीर, डॉन, अमर अकबर एंथनी और शराबी जैसी फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया.प्राण कृष्ण सिकंद ने हिंदी सिनेमा में अपने पूरे करियर में कभी भी किसी भी फिल्म में अपना रूप यानी गेटअप एक जैसा नहीं रखा। ऐसा करने वाले वह पहले हिंदी अभिनेता बने और बाद में उनकी इस परंपरा को गुलशन ग्रोवर ने कायम रखा।